आज कल बच्चे उम्र से कहीं अधिक परिपक्व हो रहे हैं

- Sushma Sharma (Writer and Social Worker)
बाल मन अत्यन्त सुकोमल-संवेदनशील तथा नाजुक होता है, उनके कोमल मानसपटल पर जो चित्र अंकित हो जाता है, उसे सरलता से नहीं मिटाया जा सकता । बच्चों की प्रकृति अनुकरण करने की होती है, वे जैसा देखते हैं- उस पर चलने का प्रसाय भी करते हैं। उनकी बाल बुद्धिअच्छे बुरे अथवा उसके दुष्परिणाम नहीं देख पाते ।
पहले बच्चे सम्मिलित परिवार में परवरिश पाते थे, अत: प्रेम, संस्कार, संगठन तथा कर्तव्यशीलता, के गुण ही पाते थे- वे परिवार से जुड़े रहते थे। आज इस भौतिक युग में अत्यन्त आधुनिक संचार माध्यमों ने बालकों को उम्र से कहीं अधिक ही बड़ा कर दिया है। बच्चे टी.वी. पर जो देखते हैं- वहीं सीखतें हैं। कम्प्युटर में ऐसे ऐसे गेम्स खेलते हैं जो बाल मन पर दुष्प्रभाव डालते हैं। गोलियों की बरसात करते गेम्स, ठाँय-ठाँय की तीव्र आवाजें ह्दय की धड़कनें तीव्र कर देती हैं और मन की सुकोमलता समाप्त देती हैं, टीवी पर बच्चों के सामान के उत्पादक इतने मनोहर विज्ञापन देते हैं कि बच्चे उन्हें खरीदने की जैसे ज़िद ही पकड़ लेते हैं और माता पिता को उनकी ज़िद के समक्ष झुकना ही पड़ता है।
आज कल के बच्चे अपने जीवन में अधिक हस्तक्षेप पसन्द नहीं करते- अधिक कठोर अनुशासन उन्हें बगावत पर उतारू कर देता है-और व वही काम अवश्य करते हैं। परिवार का उत्तरदायित्व बन जाता है कि बच्चों को पूर्ण स्नेह-संरक्षण-मार्गदर्शन तथा पर्याप्त समय दें अपना। अकेलापन भी बालकों को गलत राह पर ले सकता है।
जब दूरदर्शन का प्रारम्भ हुआ था, तब एक ही चैनल था, जिसे सभी परिजन एक साथ मिल कर देखा करते थे, किन्तु आज बच्चों के ही 15-16 चैनल है, जिसे वे अपने कमरे में अकेले बैठ कर देखते हैं। फैशन टी.वी. के नाम पर जो खुले आम अश्लीलता दिखाई जा रही है, वह बच्चों का बालपन ही छीन लेती है। दैनिक धारावाहिकों में सुहागरात के इतने लम्बे द्रश्य दिखलाए जाते हैं कि बड़ों को भी लज्जा आ जाए, किन्तु बच्चे अत्यन्त चाव से देखते हैं। स्त्री-पुरूष के सम्बन्ध के दृश्य बच्चों में जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं, क्योंकि यह उम्र ऐसी होती हैं जब बच्चों में शारिरिक परिवर्तन होते हैं। जीवन के इस नाजुक तथा संवेदनशील मोड़ पर बच्चों को भटका सकातत है। वे मानसिक रूप से इतने परिपक्व नहीं होत कि उचित अनुचित में भेद कर सकें।
पिछले दिन कुछ घटनाऐं ऐसी प्रकाश में आई जिसमें कम आयु के बच्चे अश्लील हरकतें करते पकड़े गए। बच्चे टी.वी. पर दिखाए जाए रहे कार्टूनों को देख कर उन्हीं की भाँति गतिविधीयाँ करने का प्रयास करते हैं। आज टी.वी. पर ध्रुव, प्रहलाद, अभिमन्यु आदि आदर्श बालकों के धारावाहिक नहीं दिखाए जाते । हम भी अपने बच्चों को अभिमन्यु, उत्तरा , उपमान्यु, गार्गी, मनुबाई (लक्ष्मी) की कथाऐं सुनाने की अपेक्षा फिल्मों के डायलोग सुनाकर प्रसन्न होते हैं। आज बच्चों की प्रिय पुस्तकों जासूसी अंग्रेजी उपन्यास, रोमान्टिक उपन्यास, कार्टून की पुस्तकें ही है, महापुरूषों की प्रेरणादायक कहानियाँ कोई नहीं पढ़ना चाहता।
ऐसा नहीं है कि बच्चों को बौद्धिक विकास नहीं हुआ हैं, बल्कि आज के बच्चों की बुद्धि अपेक्षाकृत तीव्र ही हुई हैं, प्रत्येक चीज को जानने की जिज्ञासा बढ़ी हैं उनकी जिज्ञासा को शान्त करन े की आवश्यकता है- अन्यथा वे गलत राह पर बढ़ सकते हैं। इस आयु में यदि उचित मार्गदर्शन न मिले तो मेघावी छात्र भी अपनी क्षमता एवं प्रतिभा का पूर्ण एवं सही उपयोग नहीं कर पाते। उनकी मानसिक ऊर्जा को सुनियोजित एवं संयमित रूप से मार्गदर्शन की आवश्यकता है। आज कल के बच्चे अपने जीवन में अधिक हस्तक्षेप पसन्द नहीं करते- अधिक कठोर अनुशासन उन्हें बगावत पर उतारू कर देता है-और व वही काम अवश्य करते हैं।
परिवार का उत्तरदायित्व बन जाता है कि बच्चों को पूर्ण स्नेह-संरक्षण-मार्गदर्शन तथा पर्याप्त समय दें अपना। अकेलापन भी बालकों को गलत राह पर ले सकता है। हमें बच्चों के भटकते विचारों पर उचित बाँध बना कर उसके प्रवाह को सही राह पर ले जाना होगा-उन्हें श्रेष्ठ साहित्य उपलब्ध कराना होगा। ये बच्चे ही देश का भविष्य हैं-इस भविष्य को सुन्दर बनाना प्रत्येक माता पिता की पवित्र जिम्मेदारी है।